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स्मरण केंद्र में झूंठी पड़तीं ये सब यादें फिर सच्ची हो जाती हैं !!!

समीक्षा
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बचपन के वो दिन मुझे आज भी याद हैं
जब नौ ईंटों का गिना हुआ स्टंप हुआ करता था
22 कदम की गिनी हुयी पिच
जब हाथ में बिना स्टीकर का बल्ला हुआ करता था
लाल रंग की इस्टम्पर गेंद।
और भाईसाहब असली गरीबी तो तब सामने आती थी
जब अकेली गेंद सामने वाले नीम के पेड़ पर अटक जाती थी।

बचपन के वो दिन मुझे आज भी याद हैं
जब पडोसी की मोटर साइकिल का प्लग मैं निकाल आता था
और बिना प्लग गाड़ी नहीं चलेगी
यह ज्ञान सिर्फ मुझे आता था।

तब कुछ पता नहीं था सिवाय इसके कि
पता नहीं कि मेरा कल कैसा होगा,
जानता हूँ तो बस इतना कि मेरा आज सुरक्षित है।

बचपन उन दिनों का नाम है जब नटराज की नयी रबर
पहले दिन के बाद कभी स्कूल से वापस लौट के घर नहीं आयी।
बचपन उन दिनों का नाम है जब पेंसिल छोड़
पेन से लिखने की सबसे बड़ी उपलब्धी पायी।

बचपन उन दिनों की गवाही है जब
क्लास में एक बेन्च पर एक लड़का-एक लड़की का बैठना
कोई बड़ी बात नहीं हुआ करती थी
और साथ बैठी हर लड़की बहन हुआ करती थी।
लंच से पहले का पीरियड उस दिन लम्बा लगता था,
जिस दिन टिफ़िन में रखा हलुआ हुआ करता था।

बचपन की ये छोटी-छोटी यादें उस दिन लम्बी हो जाती हैं
जिस दिन टीवी-कंप्यूटर से फुरसत ले बिजली रानी सो जाती हैं
ऐसे में ले उठा कलम जब मैं लेता हूँ,
स्मरण केंद्र में झूंठी पड़तीं ये सब यादें फिर सच्ची हो जाती हैं।

स्मरण केंद्र में झूंठी पड़तीं ये सब यादें फिर सच्ची हो जाती हैं …

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