- 8 Posts
- 31 Comments
जब बात परिवर्तन की हो और प्रश्न सामाजिक या राजनैतिक परिवर्तन का, तब सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक हो जाता है कि राजनीति है क्या और समाज इस राज करने की नीति का कैसे हिस्सा है। यदि राजनीति और समाज के दोराहे पर खड़े होकर परिवर्तन को समझने की कोशिश करेंगे तो आप पाएंगे परिवर्तन की लहर समाज से उठती हैं और राजनैतिक स्वरुप ले लेती हैं. यह भूल मात्र होगी यदि सत्तारूढ़ दल के बदल जाने या शीर्ष नेतृत्व में बदलाव को राजनैतिक परिवर्तन माना जाये. दरअसल राजनैतिक परिवर्तन तो उस धरा का एक पड़ाव मात्र है को सामजिक परिवर्तन से शुरू होती हैं. अतः कोई यदि यह कहे कि सामजिक परिवर्तन की नहीं अपितु राजनैतिक परिवर्तन की आवश्यकता अधिक है तो वह वहीं तार्किक रूप से गलत सिद्ध हो जाता है क्यूंकि बिना सामाजिक परिवर्तन, राजनैतिक परिवर्तन की कल्पना मात्र करना ही अधूरी कल्पना है, एक लंगड़ी सोच हैं. उल्लेखनीय है कि जिस वर्ग या जाति के हाथ में सामाजिक प्रशासन होता है, प्रायः उसी के हाथ में राजनैतिक प्रशासन भी हो जाता है। वस्तुतः सामाजिक प्रशासन, राजनैतिक प्रशासन के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करता है। सामाजिक प्रशासन में परिवर्तन करना यद्यपि किसी क्रान्ति से कम नहीं। मैं यह बात ऐसे ही नहीं कह रहा, मेरे शब्दों के पीछे इतिहास है जो इन शब्दों को गढ़ रहा है. इतिहास गवाह है शिवाजी को सत्ता तब मिली जब महाराष्ट्र के संतों ने द्विजों के सामाजिक प्रशासन के खिलाफ आवाज उठाई, तो दक्षिण में पेरियार ने जब ब्राह्मणवाद के खिलाफ आन्दोलन छेड़ा, तब जाकर द्रमुक पार्टी सत्ता में आयी। बिहार में १९१५ के दौरान निम्न समझी जाने वाली जातियों ने जनेऊ पहन कर अपनी सामाजिक हैसियत को आगे बढ़ाने का आन्दोलन आरम्भ किया। इसी प्रकार जब डॉ० अम्बेडकर ने ब्राह्मणवादी संस्कृति और मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ खुला आन्दोलन छेड़ा तो दलितों में चेतना पैदा हुई और उसी का प्रतिफल है कि आज दलित सत्ता के तमाम शीर्ष ओहदों तक पहुँच पाए हैं। देश आज भी भुला नहीं है उस सामाजिक परिवर्तन के पुरोधा अन्ना हजारे को, जिनकी जगाई जन-चेतना और जन-जागृति को, जो फल स्वरुप देश की राजधानी में राजनैतिक परिवर्तन की नींव बनी. अतः यह स्पष्ट है कि बिना सामाजिक प्रशासन के राजनैतिक प्रशासन नहीं मिलता और मिलता भी है तो उसका चरित्र स्थायी नहीं होता।
जब बात भारत में परिवर्तन की ज़रूरतों की हो तब हमें समझना होगा भारत ऐसे वर्गों के बहुमत का देश है जिस वर्ग के लोगों में जागरुकता, चेतना और स्वाभिमान का अभाव होता है, जिससे वे अपने जायज अधिकारों को नहीं समझ पाते। एक कटु सच यह भी हैं कि भारतियों को जन्म से ही ऐसे संस्कारों और हीनता के भावों से कुपोषित कर दिया जाता है कि वे संघर्ष करना भूलकर भाग्यवाद के सहारे जी रहे होते हैं। हमें कोल्हू के बैल की तरह एक घेरे में ही सीमित कर दिया जाता है। अतः परिवर्तन के लिए इस वर्ग को जागरुक, चेतनशील और चौकन्ना बनना होगा तभी वास्तविक रूप से सामाजिक परिवर्तन आयेगा और राजनैतिक परिवर्तन के लिए सामाजिक परिवर्तन का होना एक अति आवश्यक कारक है।
डॉ०अम्बेडकर ने संविधान सभा को संविधान समर्पित करते हुये कहा था कि-राजनैतिक लोकतन्त्र तभी सार्थक होगा जब देश में सामाजिक लोकतन्त्र कायम होगा।
संविधान तो लागू हो गया पर दुर्भाग्य से आज तक भारत में सामाजिक लोकतन्त्र स्थापित नहीं हो सका। कारण स्पष्ट है कि निहित स्वार्थी वर्गों ने बड़े जटिल ताने-बाने के माध्यम से अपना सामाजिक प्रशासन स्थापित कर रखा है और धर्मिक संस्कारों व सांस्कृतिक परम्पराओं की आड़ में इसे अभेद्य बना दिया है। इस अभेद्य दुर्ग को एक झटके में तोड़ना सम्भव नहीं है वरन् इसके लिए अथक् संघर्ष और सतत् सद्-प्रयासों की जरूरत है। और एक ऐसा ही प्रयास होगा भारत में सामाजिक परिवर्तन जिसकी इस चिरकालिक सभ्यता और अति नवीन आकान्शाओं वाले देश को शीघ्र अति शीघ्र आवश्यकता है.
Read Comments