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जिस प्रकार समुद्र में लहरों के ऊपर होलोरें लेता हुआ जहाज अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता है, उसी प्रकार प्रत्येक प्राणी जीवन की आपद-विपद लहरों पर डोलता हुआ लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है. जिस प्रकाश स्तम्भ समुद्र में जहाज का सही मार्गदर्शन करते हैं ओर यदि ना हों तो जहाज लहरों में ही विलीन हो जाता, उसी प्रकार एक शिक्षक छात्र का सही मार्गदर्शन करता है. अतः इस बात में कोई दोराय नहीं है कि उत्तम मार्गदर्शन के लिए जहाज व प्रकाश स्तम्भ अथवा शिक्षक व छात्र के बीच एक सतत संवाद की जरूरत है. बेहतर समझ और सफल शिक्षण का स्रोत है निरंतर संवाद.
आज की दौड़ती-भागती दुनिया में यदि कुछ स्थायी बचा है तो वह है “बदलाव”. और यकीनन छात्र-शिक्षक के बीच का रिश्ता भी इस बदलाव से अछूता नहीं है. इन दोनों के बीच के रिश्ते में आये बदलाव का एक अहम् हिस्सा है संवाद का माध्यम. बदलते समय में जिस प्रकार Social Networking अर्थात सामाजिक जालक्रम एक संवाद का जरिया बना है, उसने यकीनन एक चर्चा को जन्म दिया है. जब बात शिक्षकों और छात्रों के बीच सामाजिक जालक्रम वाली वेबसाइट पर संवाद को रोकने की हो तो बहुत आवश्यक हो जाता है कि हम इसके कुछ पहलुओं को क्रमशः समझने की कोशिश करें.मेरा यह मानना है की प्रस्तुत सवाल तब उठता है जब इन सामाजिक वेबसाइट को बहुत छोटे व संकीर्ण परपेक्ष में देखा जाता है. हमें ज़रूरत है कि हम इस बात को समझें कि ऐसी वेबसाइट सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन का माध्यम नहीं हैं और ना ही इनपर होने वाले संवाद को हमेशा निजी बताया जा सकता है. ना जाने कितने व्यावसाय इन वेबसाइट के माध्यम से चल रहे हैं, अतःइनका मनोरंजन की दुनिया से अलग, व्यावसायिक व ज्ञानार्जन के पहलु से भी अपना एक अस्तित्व है. इसी परपेक्ष में देखें तो ऐसी वेबसाइट शिक्षक व छात्र के बीच संवाद का एक बेहतरीन मंच प्रदान करतीं हैं, और इस मंच के प्रयोग में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. बस ज़रुरत है तो हमें विशाल परपेक्ष में इनकी असकी उपयोगिता पहचानने की. इन्ही वेबसाइट देन है अब किसी भी विषय पर जानकारी करनी हो, या कोई संशय दूर करना हो, हमारे संसाधन कक्षा में आने वाले शिक्षकों तक सीमित नहीं हैं, अथवा यदि में कहूँ कि अब अनेक देशों के लाखों शिक्षक इस संसाधनों की सूची में जुड़ गए हैं, तो ये अतिशयोक्ति नहीं होगा. यह ताकत है इन सामाजिक वेबसाइट की.मेरे साथी वक्ता ऐसे कई तर्क व उदहारण रखते हैं जहाँ शिक्षक व छात्र का ऐसी ही सामाजिक जालक्रम की वेबसाइट पर संवाद का अच्छा परिणाम नहीं निकला है. मेरे विचार से समस्या उसका नाम है जो सफलता से दृष्टी भटक जाने पर दिखाई देती है. हमें याद करने की ज़रुरत है कि खोट देखने वालों ने तो अग्नि परीक्षा दे चुकीं माता सीता के चरित्र में भी खोट ढूँढ लिया था परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि माता सीता के चरित्र पर ऊँगली उठाई जाये. मुझे इस बात को मानने में कोई संकोच नहीं है कि ऐसे कई उदहारण होंगे जहाँ अपेक्षित परिणाम नहीं निकले होंगे परन्तु इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि सारी व्यवस्था को दोष दे दिया जाये. शिक्षकों व छात्रों के बीच का यह संवाद कैसा हो, इसकी क्या मर्यादाएं हो, इसकी क्या सीमा हो, यह सब अपने आप में स्यतंत्र वाद-विवाद के विषय हैं, और इनपर मंथन होना चाहिए परन्तु इन सवालों के उत्तर में यह कह देना कि छात्र व शिक्षक के बीच सामाजिक जालक्रम कि इन वेबसाइट पर संवाद हो ही ना, यह तो एक लंगड़ी सोच है, विकास कि अधूरी कल्पना है.सफलता के लिए हमारा प्रयास इन वेबसाइट का कैसे ओर बेहतर प्रयोग किया जा सकता है इस बात पर मंथन करके होना चाहिए ना कि सरे संवाद पर ही रोक लगा के. यदि हम ऐसा करते हैं तो फिर तो हम बदलते समय के साथ अपनी गति धीमी कर देंगे ओर पिछड़ जायेंगे. यह तकनीकी व संचार के मिलन का अद्भुत संयोग का काल है, हमें मिलने वाली सभी सुविधायों का बेहतर से बेहतर प्रयोग करके ही आगे बढ़ना है.
अंत में मैं अपने विरोधियों से बस इतना ही पूछना चाहती हूँ कि यदि सामाजिक वेबसाइट के प्रयोग से सीखना आसन होता है तो इसमें गलत क्या है? प्रयोग को तो सब्ज़ी काटने वाला चाकू भी किसी को मारने के काम आ सकता है, इसका मतलब यह नहीं है कि किसी को मारा ही जाये, पीने को तो कीटाणु मारने वाला ज़हर भी पानी कि तरह पिया जा सकता है, इसका मतलब यह नहीं है कि उसे पिया ही जाये. आज हमारे सामने इन सामाजिक वेबसाइट के माध्यम से एक अवसर खड़ा है, हम अपनी शिक्षा प्रणाली को एक नयी दिशा दे सकते हैं बस ज़रुरत है तो पूरे अवसर के बेहतर प्रयोग के उपाय निकालकर उसका आलिंगन करने कि. इस सब के बीच शिक्षक-छात्र के संवाद को प्रतिबंधित कर देना एक स्थायी समस्या का अस्थायी समाधान होगा. ओर यकीन मानिये विकासशील समाज मुझसे, आपसे ओर यहाँ उपस्थित सभी बुद्धिजीवियों से एक स्थायी समाधान की अपेक्षा करता है.
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